| “भ्रम” by Sri Shivananda, 2014 |


ढूढ़ रहा है यहाँ हर कोई एक ख़ुशी,
कोई अपने भीतर कोई अपने बाहर ।
खुशी मिली भी तो कयों पल भर में,
भ्रमित हो कर गायब हो जाती है ।
कभी खुशी के पल करीब से गुजर –
कर चले जाते है कही ।
और रह जाती है मन में इक तमन्ना –
अपनों से मिलकर भी खुशी- अधूरी रह जाती है ।
क्यों अपने अपनों में ही सिमट-
कर रह गये है ।
सोचा था मिलकर उनसे पा लेंगे –
खुशी पूरी दुनिया की,
पर वो मिले ऐसेमोड़ पर जहाँ –
देख उनको मन और भी उदास हो गया ।
क्या खुशी महज एकपागलपन है,
या सुख-दुःख के परे एक “भ्रम” है ।।