| प्रेम का रिश्ता” by Sri Shivananda, 2014 |


कभी माँ कभी पिता कभी भाई तो कभी बहन –
इन्ही नामो में उदित अंश हूँ ,
जनम के साथ जुड़ता और मरण के बाद भी जीवित
मैं एक अंग हूँ।।

समय के रथ पर सवार कभी मैं चलता रहा हु ,
तो कभी वस्तुओ का –
बोझ अहसहनीये होने से मैं रथ से गिर टूट जाता हूँ।।

कच्चे धागे से लिपटा हुआ रहता मैं एक फूल हूँ,
जिस भी नाम से पुकारो –
मुझको उसी का मैं प्रतिबिम्ब हो जाता हूँ।।

आध्यत्मिक दृष्टि से देखो मुझको तो भगति का वरदान हूँ ,
तो कभी इस पथ पर –
बढ़ते – बढ़ते मैं संसार की दृष्टि मे तिरस्कृत हो जाता हूँ।।

नूतन प्रेम की बहती गंगधार है मुझमें,
पर क्यों सब जानते हुए भी
सबकी नजर से परे ही रह जाता हूँ।।

पुकारता है हर कोई मुझे एक सांसारिक नाम देकर,
और इसी नाम में बधा रहता हूँ ,
जाना चाहता नही कोई परे इससे और अंततः इसी –
नाम में कही खो जाता हूँ।।

हर नई पीढ़ी मे , नए नाम से जुडता हूँ ,
नये नये नामो में उलझा रहता हूँ
पूर्ण हृद्य एवं आत्मा से पकडे रखो मुझको ,
पर मैं तो ये प्रार्थना करते – करते –
ही समाप्त हो जाता हूँ।।

हे अंतरमन , सूर्य नित्य सवेरे उदित होता रहेगा ,
निद्रा से जागो , पीढ़ियों का –
बदलाव यूँ ही चलता रहेगा ,
मुझे निभाना सीख लो –
यूँ ही मैं कितनी मौत मरता रहूँगा।।

जीने की चाहत लिए फिर भी चक्रव्यूह में पिसता हूँ ,
जनम के साथ ही जो नाम मिला
उसी में छिपा ” मैं प्रेम एक रिश्ता हूँ “।।