| चलना ही जीवन है, 2014 |


‘सड़क के किनारे पड़े-
पत्थर से मैंने पूछा’
‘तुम पाषाण क्यों हो गये।
क्यों रुक गये ये जीवन में
‘चलते रहते तो तुम्हारे भीतर लहराता जीवन,
पाषाण न बनता ।।

“चलना ही जीवन है”
किसी के प्यार भरे सपर्श में-
कभी तुम्हे भी तो तराशा था,
रूप दिया था-

जीने का अर्थ दिया था।
फिर पाषाण कियो बन गये’
जीवन चाहते हो तो बोलो –
मिटटी में मिला दूँ आज’
उगेगा एक दिन तुम्हारी
कोरव से भी जीवन।।

पाषाण ही रहोगे तो –
रास्ते का पत्थर ही कहलाओगे।
पर पत्थर तो इतना पत्थर हो चूका था।
कि सुनी न उसने मेरी बात।
रुक गया तो मैं भी पाषाण न हो जाऊँ।
यही सोच मैं आगे बढ़ गया।।