चौवीसवाँ दिन-केदारनाथ की ओर
देवप्रयाग में पूजन,ध्यान,देवदर्शन पाने के बाद आज हम अपनी आगे की यात्रा आरम्भ करेंगे।देवों का यह स्थान दिव्य भूमि है।जहाँ कई सिद्ध-मुनियों ने तप कर के मोक्ष पाया,और उन्ही के तपोबल से आज ये संसार टिका हुआ।ऐसे दिव्य तपस्वियों को नमन करके,देवप्रयाग मे आनंद और शांति को मन कर्म मे भरकर हम आगे की यात्रा आरम्भ करते हैं।
देवप्रयाग से आगे बढ़ते हम श्रीनगर नामक शहर आ पहुँचे।श्रीनगर के बारे मे कुछ जानकारी पाते हैं।
श्रीनगर
देवप्रयाग से 1 घण्टे का सफर तय करने बाद के बाद हम श्रीनगर आ पहुँचे।श्रीनगर एक प्राचीन शहर है।जो बद्रीनाथ और केदारनाथ के मार्ग में स्थित है, निरंतर होते बदलाव के बाद भी अपने अस्तित्व को बचाये रखा है। श्रीनगर, टिहरी के अस्तित्व में आने से पहले एकमात्र शहर था। कई बार विनाशकारी बाढ़ का सामना करने के बाद अंग्रेजों के शासनकाल में एक सुनियोजित शहर के रूप में उदित हुआ और अब गढ़वाल का सर्वश्रेष्ठ शिक्षण केंद्र है। विस्थापन एवं स्थापना के कई दौर से गुजरने की कठिनाई के बावजूद इस शहर ने कभी भी अपना उत्साह नहीं खोया और बद्री एवं केदार धामों के रास्ते में तीर्थयात्रियों की विश्राम स्थली एवं शैक्षणिक केंद्र बना रहा है और अब भी वह स्वरूप विद्यमान है।श्रीनगर आकर्षणों तथा आस-पास के घूमने योग्य स्थान यहां के समृद्ध इतिहास से जुड़े हैं। यह गढ़वाल के पंवार राजवंश के राजाओं की राजधानी थी, इसलिए श्रीनगर उन दिनों सांस्कृतिक तथा राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र था, जिसे यहां के लोग गौरव से याद करते है। यह शहर आदी गुरू शंकराचार्य से भी जुड़ा है।
श्रीनगर को श्री क्षेत्र भी कहा जाता है।महाराज सत्यसंग को गहरी तपस्या के बाद श्री विद्या का वरदान मिला जिसके बाद उन्होंने कोलासुर राक्षस का वध किया। एक यज्ञ का आयोजन कर वैदिक परंपरानुसार शहर की पुनर्स्थापना की। श्री विद्या की प्राप्ति ने उन्होने तत्कालीन इसको नाम श्रीपुर दिया। प्राचीन भारत में यह सामान्य था कि शहरों के नामों के पहले श्री शब्द लगाये जाते थे। क्योंकि यह लक्ष्मी का परिचायक है, जो धन की देवी है। अलकनंदा के किनारे बसा ये शहर बहुत ही सुंदर है।इस शहर के आने बाद हम गाड़ियों मे ही बैठकर इसके इतिहास को सुनते सुनते आगे बढ़ गये।क्योंकि आज हमें रुद्रप्रयाग पहुँचना था।।पंचप्रयाग मे सबसे पहले हमने देवप्रयाग का दर्शन पाया।उसके बाद हम अब रूद्रप्रयाग का दर्शन पायेंगे।श्रीनगर से आगे 1घंटे का सफर तय करके हम दिव्य भूमि रूद्रप्रयाग आ पहुँचे।।
जारी है।———-
पचीसबाँ दिन—केदारनाथ की ओर
गाड़ी मे बैठकर आस पास के नजारों को निहारने निहारते और रास्ते में पड़ते आस पास गावों को जानते,उनकी कथाओं को सुनते हम दिव्य आलौकिक दूसरे प्रयाग रूद्रप्रयाग आ पहुँचे।अब हम रुद्रप्रयाग का दर्शन पायेंगे और वहाँ के इतिहास को जानेगे।
रुद्रप्रयाग
रुद्रप्रयाग भी देवप्रयाग जैसे दो नदियों का संगम है।तपोस्थल है।रुद्रप्रयाग अलकनंदा तथा मंदाकिनी नदियों का संगमस्थल है। यहाँ से अलकनंदा देवप्रयाग मे जाकर भगीरथी से मिलती है।तथा गंगा नदी का निर्माण करती है। प्रसिद्ध धर्मस्थल केदारनाथ धाम रुद्रप्रयाग से होकर जाना पड़ता है। भगवान शिव के नाम पर रूद्रप्रयाग का नाम रखा गया है। रूद्रप्रयाग अलकनंदा और मंदाकिनी नदी पर स्थित है। रूद्रप्रयाग श्रीनगर से 34 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मंदाकिनी और अलखनंदा नदियों का संगम अपने आप में एक अनोखी खूबसूरती है। इन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो दो बहनें आपस में एक दूसरे को गले लगा रहीं हो। ऐसा माना जाता है।इस स्थान “नारद मुनि” ने भगवान शिव की उपासना की थी ।और नारद जी को आर्शीवाद देने के लिए ही भगवान शिव ने रौद्र रूप में अवतार लिया था। यहां स्थित शिव और जगदम्बा मंदिर प्रमुख धार्मिक स्थानों में से है।यही पे स्थित अब हम कोटेश्वर मंदिर का दर्शन पायेंगे।आईये तो मंदिर का दर्शन और इतिहास जाने।
छवीसवाँ दिन—केदारनाथ की ओर
रुद्रप्रयाग मे कल अलकनंदा और मंदाकिनी संगम और कोटेश्वर महादेव दर्शन पाने के बाद आज हम कार्तिक स्वामी मंदिर का दर्शन पायेगें और इतिहास को जानेगें।
कार्तिक स्वामी मंदिर
कार्तिक स्वामी मंदिर रुद्रप्रयाग में कनक चौरी गाँव से 3 कि.मी. की दुरी पर क्रोध पर्वत पर स्थित है। यह मंदिर काफी ऊँचाई पर स्थित शक्तिशाली हिमालय की श्रेणियों से घिरा हुआ है। कार्तिक स्वामी मंदिर रुद्रप्रयाग जिले का सबसे पवित्र पर्यटक स्थलों में से एक है।यह मंदिर उत्तराखंड का सिर्फ एकमात्र मंदिर है। जो कि भगवान कार्तिक को समर्पित है।भगवान कार्तिकेय का अति प्राचीन “कार्तिक स्वामी मंदिर” एक दैवीय स्थान होने के साथ साथ एक बहुत ही खूबसूरत पर्यटक स्थल भी है । मंदिर भगवान् शिव के जयेष्ठ पुत्र “भगवान कार्तिक” को समर्पित है।भगवान कार्तिक स्वामी को भारत के दक्षिणी भाग में “कार्तिक मुरुगन स्वामी” के रूप में भी जाना जाता है । क्रोध पर्वत पर स्थित इस प्राचीन मंदिर को लेकर इतिहास है।कि भगवान कार्तिकेय आज भी यहां निर्वांण रूप में तपस्यारत हैं। मंदिर में लटकाए सैकड़ों घंटी से एक निरंतर ही वहां से करीब 800 मीटर की दूरी तक सुनी जा सकती है।यह मंदिर बारह महीने श्रद्धालुओं के लिये खुला रहता है और मंदिर के प्रांगण से चौखम्बा, त्रिशूल आदि पर्वत श्रॄंखलाओं के सुगम दर्शन होते हैं। बैकुंठ चतुर्दशी पर्व पर भी दो दिवसीय मेला लगता है। कार्तिक पूर्णिमा पर यहां निसंतान दंपति दीपदान करते हैं। यहां पर रातभर खड़े होकर हाथ मे दीये लेकर दंपति संतान प्राप्ति की कामना करतेे हैं, जो फलीभूत होती है। कार्तिक पूर्णिमा और जेठ माह में आधिपत्य गांवों की ओर से मंदिर में विशेष धार्मिक अनुष्ठान भी किया जाता है।
सताईसवाँ दिन—केदारनाथ की ओर
रुद्रप्रयाग से आगे चलते हमे अगस्तयमुनि जगह आ पहुंचे ।ये यात्रा सब जगह का आर्शीवाद लेते हुए हमारी यात्रा आगे बढ़ रही है।बेहद सुंदर अनुभव रहे हैं हर किसी की,एक ही धुन मे आगे बढ़ते हम बस यही सोचते हैं कि अब आगे और जानने को मिलेगा।ये यात्रा कभी खत्म न हो ऐसे विचार गाड़ी का पहिया भी आगे बढ़ता है।रास्तों का आंनद लेते,हंसी मजाक मस्ती करते हम आ पहुँचे अगस्तय मुनि।आईये जानते हैं यहाँ का इतिहास।
अठाईसवाँ दिन—-केदारनाथ की ओर
अगस्तयमुनि मे दर्शन पाकर आज हम ऊखीमठ दर्शन पायेंगे।कितना बड़ा है इतिहास इस भारत देश का।और भारत देश मे उत्तराखड की महिमा अलग है।जहाँ के कण मे योगी सिद्धों की महिमा है।भगवान भी वहाँ आंनद उत्सव मनाते हैं।जितना गुणगान करु कम होगा।जितना बोंलू कम होगा।ऐसे महिमा और आंनद लेते हम आज ऊखीमठ जायेंगे।जहाँ की महिमा का आंनद शब्दों मे लिखा नही जा सकता।भगवान भोले नाथ की ये भूमि अति पावन है।आईये जानते है।ऊखीमठ की महिमा।