उनासठवाँ दिन–बद्रीनाथ की ओर
सब मदिरों का दर्शन और महिमा का गुणगान करते हम अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ने लगे।हर जगह के महत्व को जानकर बहाँ का दर्शन पाकर जीवन पाप मुक्त होता गया,किसी चीज को देखने से ज्यादा उसके महिमा को दिल से सुनने मात्र से सौभाग्य प्राप्त होता है।सब यात्री गाड़ियों मे बैठकर आगे बढ़ते हुये।पहाड़ो का आंनद लेते।कही नदियां तो कही बर्फ से ढके पहाड़ ।हम उन रास्तों से गुजरे जहाँ से हेमकुण्ड साहिब,और फूलों की घाटी का मार्ग जाता है।नीचे मार्ग से ही उस जगह को नमन करते।हम आगे बढ़ गये।रास्ता इतना सुंदर है कि व्याख्या कर पाना कठिन है।शाम होते बद्रीनाथ जा पहुँचे।चारों तरफ बर्फ के पहाड़ और पर्वतों की गोद में बसा बद्रीनाथ शहर बहुत ही सुंदर है,आलौकिक है।पीछे पर्वत और सुंदर रगों से सुसजित बद्रीनाथ मंदिर का मुख्य द्वार दूर से नजर आ रहा था।अलकनंदा के स्वर से पूरी घाटी गूजती है।ये नजारा देखना बहुत ही आलौकिक है।अब हर कोई बस दर्शन पाना चाहता था।लेकिन थकान के कारण पहले सभी अपने अपने कमरों मे गये।आराम के बाद एक स्थान पर बैठकर सर्वप्रथम मै बद्रीनाथ की महिमा का गुणगान करुँगा फिर मंदिर दर्शन।जय बोलो बद्री विशाल की जय।
जारी है।——-
साठवाँ दिन—बद्रीनाथ दर्शन
बद्रीनारायण
बद्रीनाथ अथवा बद्रीनारायण मन्दिर भारतीय राज्य उत्तराखण्ड के चमोली जिले में अलकनन्दा नदी के तट पर स्थित एक हिन्दू मन्दिर है। यह हिंदू देवता विष्णु जी को समर्पित मंदिर है। और यह स्थान इस धर्म में वर्णित सर्वाधिक पवित्र स्थानों, चार धामों, में से एक यह एक प्राचीन मंदिर है।मन्दिर के नाम पर ही इसके इर्द-गिर्द बसे नगर को भी बद्रीनाथ ही कहा जाता है। जाड़ों की ऋतु में हिमालयी क्षेत्र की रूक्ष मौसमी दशाओं के कारण मन्दिर वर्ष के छह महीनों अप्रैल के अंत से लेकर नवम्बर की शुरुआत तक की सीमित अवधि के लिए ही खुला रहता है। यह भारत के कुछ सबसे व्यस्त तीर्थस्थानों में से एक है।
इकसठवाँ दिन–बद्री नारायण दर्शन
बद्रीनाथ महिमा
हिमालय में स्थित बद्रीनाथ क्षेत्र भिन्न-भिन्न कालों में अलग नामों से प्रचलित रहा है। स्कन्दपुराण में बद्री क्षेत्र को “मुक्तिप्रदा” के नाम से उल्लेखित किया गया हैजिससे स्पष्ट हो जाता है कि सत युग में यही इस क्षेत्र का नाम था। त्रेता युग में भगवान नारायण के इस क्षेत्र को “योग सिद्ध”, और फिर द्वापर युग में भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन के कारण इसे “मणिभद्र आश्रम” या “विशाला तीर्थ” कहा गया है।
कलियुग में इस धाम को “बद्रिकाश्रम” अथवा “बद्रीनाथ” के नाम से जाना जाता है। स्थान का यह नाम यहाँ बहुत मात्रा में पाए जाने वाले बद्री (बेर) के वृक्षों के कारण पड़ा था।
बासववाँ दिन–बद्री नारायण दर्शन
बद्रीनाथ महिमा
इस मन्दिर को नौवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा एक तीर्थ स्थल के रूप में स्थापित किया गया था।शंकराचार्य छः वर्षों तक इसी स्थान पर रहे थे। इस स्थान में अपने निवास के दौरान वह छह महीने के लिए बद्रीनाथ में,और फिर शेष वर्ष केदारनाथ में रहते थे। बद्रीनाथ की मूर्ति स्वयं देवताओं ने स्थापित की थी। जब बौद्धों का पराभव हुआ, तो उन्होंने इसे अलकनन्दा में फेंक दिया। शंकराचार्य ने ही अलकनंदा नदी में से बद्रीनाथ की इस मूर्ति की खोज की, और इसे तप्त कुंड नामक गर्म चश्मे के पास स्थित एक गुफा में स्थापित किया।तदनन्तर मूर्ति पुन: स्थानान्तरित हो गयी और तीसरी बार तप्तकुण्ड से निकालकर रामानुजाचार्य ने इसकी स्थापना की।
तरेसठवाँ दिन–बद्रीनाथ दर्शन
बद्रीनाथ दर्शन
यह स्थान हिमालय की उस श्रेणी पर अवस्थित है। जिसे “महान हिमालय” अथवा “मध्य हिमालय” के नाम से जाना जाता है।यह क्षेत्र उन कई पर्वतीय जलधाराओं का उद्गम स्थल है जो एक दूसरे में मिलकर अंततः भारत की प्रमुख नदी गंगा का रूप लेती हैं। इन्हीं पर्वतीय सरिताओं में से एक प्रमुख धारा अलकनन्दा इस घाटी से होकर बहती है जिसमें यह मन्दिर स्थित है। मन्दिर और शहर अलकनन्दा और इसकी सहायिका ऋषिगंगा नदी के पवित्र संगम पर स्थित हैं।मन्दिर अलकनन्दा नदी के दाहिने तट पर स्थित है। और मंदिर से कुछ ही दूर आगे दक्षिण में ऋषिगंगा नदी पश्चिम दिशा से आकर अलकनन्दा में मिलती है। जिस घाटी में यह संगम होता है, मन्दिर के ठीक सामने नर पर्वत, जबकि पीठ की ओर नीलाकण्ठ शिखर के पीछे नारायण पर्वत स्थित है।इसके पश्चिम में बद्रीनाथ शिखर स्थित है।
मन्दिर के ठीक नीचे तप्त कुण्ड नामक गर्म चश्मा है। सल्फर युक्त पानी के इस चश्मे को औषधीय माना जाता है। कई तीर्थयात्री मन्दिर में जाने से पहले इस चश्मे में स्नान करना आवश्यक मानते हैं।मन्दिर में पानी के दो तालाब भी हैं, जिन्हें नारद कुण्ड और सूर्य कुण्ड कहा जाता है।
जारी है—